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Tuesday, March 15, 2022

Humans poem इन्सान कविता

 

Humans Poem  इन्सान  कविता 



इन्सान

 

Humans poem इन्सान  कविता
इंसान कविता





हम कई दफा हिन्दू बने

हम कई दफा मुसलमान बने

और कई बार सिख ईसाई भी बने

हम कई बार किसी एक

जाती, जमाती के बने

 

यह सब बनने संवरने के बाद

हमने जाना इनकी निरर्थकता को

हम सब कुछ बने

पर अफसोस !

की हम इन्सान बने

 

जीवन की इस ढ़लती साँझ में

हम सोचने लगे

क्यों कुछ दिन या पल

हम इन्सान ही बनें

 

 





समर्पित शहीद जवानों को


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समर्पित शहीद जवानों को

 




दीप उनकी कबर पे जलेंगे सदा

जिसने सर दे दिया है वतन के लिए

 

फूल माला समर्पित हमारी उन्हें

जिसने सर दे दिया है वतन के लिए ।।

 

देशवासी उन्हीं की कर रहे वंदना

कीर्ति उनकी अमर विश्व में हो गयी ।।

धन्य उनका धरा पर जनम हो गया

जिसने सर दे दिया है वतन के लिए ||

 

 

देश उनका हमेशा करजदार है

जिसने सर दे दिया है वतन के लिए ||

 

गंगा यमुना-सी नदियाँ बह रही हैं जहाँ

जिसका प्रहरी बना है हिमालय यहाँ

जिसने कुर्बानी दी इस चमन के लिए

याद रखेंगे उन्हें हम सदा के लिए

जिसने सर दे दिया है वतन के लिए ।।

 

दीप उनकी कबर पे जलेंगे सदा

जिसने सर दे दिया है वतन के लिए ||

 

 

 

 

 



आज चारों दिशाएँ खामोश है

 

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आज चारों दिशाएँ खामोश है
 

आज ये धरती चुपचुप हैं, आज ये अंबर चुपचुप है,

आज चारों दिशाएँ खामोश हैं

 

घुट रही हैं, इंसानों की साँस यहाँ,

टूट चुकी हैं, उम्मीदों की आस यहाँ,

मुस्कराते हुए फूल, आज मुरझा गये,

नजर आते हैं सब उदास यहाँ,

 

इनकी आँखों में भरा आक्रोश है |

आज चारों दिशाएँ खामोश हैं।

 

आज नारी की इज्जत, इज्जत नहीं,

इनकी दुनियाँ में कोई कीमत नहीं

, कैसे जल्मों के प्रति, आवाज ये उठाएँ,

 

आज इंसानों की नियत ठीक नहीं।

आज उनके भी अंदर ये शेष है

आज चारों दिशाएँ खामोश हैं

 

हर तरफ फैली, नफरत की चिनगारियाँ,

. हर घर में दिखती हैं बेरोजगारियाँ;

बुलंद हौसले आज पस्त हो गए,

लग गई हैं उन्हें 'ना' की बीमारियाँ

खत्म हो रहा इनमें जो जोश है

आज चारों दिशाएँ खामोश हैं

 

इन नेताओं को हम अपना रक्षक कहें,

आज क्यों इन्हें हम भक्षक कहें

, कुर्सी के लिए बेचे ये अपना इमां,

 

पर ढोंगी भाषण हमेशा देते रहे

इनको कुर्सी दिलाना हमारा दोष है

आज चारो दिशाएँ खामोश हैं

 

आज ये धरती चुपचुप है,

आज ये अंबर चुपचुप है,

आज चारों दिशाएँ खामोश हैं |

 

 

 

 


 

आजादी मिल गई हैं



Humans poem इन्सान  कविता
आजादी मिल गई हैं


 

आजादी मिल गई हैं,

 

पर, हम कब होंगी आआजाद ?

 ये जुल्मों सितम की लड़ियों, हम कब तक पहनेंगी?

 दसरों के आगे आखिर, हम कब तक झकेंगी?

 सोया हमारा दिल हैं, और अरमाँ सो गया,

 जो हममें था उत्साह, वह उत्साह खो गया

 

आजादी मिल गई हैं,

पर, हम कब होंगी आजाद ?

 ... कभी पति की खातिर, कभी बच्चों की खातिर,

हमने सबकुछ दे दिया, अपने जान को कर हाजिर

| उसपर भी रहम आया, हमारे समाज को,

किया बेईज्जत इसने, हमारी लाज को

 

आजादी मिल गई है,

पर, हम कब होंगी आजाद ?

 

 . ये धर्म के ठेकेदार, जो कहते हैं आगे बढ़ो,

 छिन लेते हैं सबकुछ, जो इनसे लड़ो .

.. बैठना ही पड़ा था, सीताजी को आग में,

मिला आखिर क्या, रामजी को त्याग में ?

 

आजादी मिल गई हैं,

पर, हम कब होंगी आजाद ?

 

 जब नारी ही नारी की, दुश्मन बन जाती हैं,

वह अपनी किस्मत पर, बस आँसू बहाती है

हम सिसक-सिसक कर रोयें,

और, तड़प-तड़प मर जाएँ

 ' फिर अन्त समय में हम,

बेबस नारी कहलाएँ

 

. आजादी मिल गई हैं,

पर, हम कब होंगी आजाद ?






 


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